🔹 सर्वप्रथम प्रयोग
खड़ी बोली नाम सर्वप्रथम हिंदी या हिंदुस्तानी की उस शैली के लिए दिया गया जो उर्दू की अपेक्षा अधिक शुद्ध हिंदी (भारतीय) थी और जिसका प्रयोग संस्कृत परम्परा अथवा भारतीय परम्परा से सम्बंधित लोग अधिक करते थे। अधिकांशत: वह नागरीलिपि में लिखी जाती थी। 1805ई. से हिंदी, हिंदुस्तानी और उर्दू शब्द गिलक्राइस्टके अनुसार समानार्थक थे, अतएव इनसे अलगाव सिद्ध करने के लिए 'शुद्ध' (pure) विशेषण जोड़ने की आवश्यकता पड़ी तथा खड़ीबोली नाम सार्थक हुआ। इस प्रकार खड़ीबोली का वास्तविक अर्थहोगा शुद्ध, परिष्कृत या परिनिष्ठित प्रचलित भाषा। उर्दू भी दिल्ली आगरा की भाषा थी, किंतु वह यामिनी मिश्रित थी, अतएव वह दिल्ली आगरा की खड़ी और प्रचलित बोली नहीं थी। खड़ी बोली शब्द का अर्थ 1823 ई. के बाद हिंदी हुआ। यही करण है कि "प्रेमसागर' के 1842 ई. के संस्करण में हिंदी शब्द ही मुखपृष्ठ पर मुद्रित है।
खड़ी बोली शब्द का प्रयोग आरम्भ में उसी भाषा शैली के लिए हुआ, जिसे 1823 ई. के बाद 'हिंदी' कहा गया। किंतु जब प्राचीन या प्रचलित शब्द ने 'खड़ी बोली' का स्थान ले लिया तो खड़ी बोली शब्द उस शैली के लिए बहुत कम प्रयुक्त हुआ, केवल साहित्यिक संदर्भ में कभी कभी प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार जब यह मत प्रसिद्ध हो गया कि हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी की मूलाधार बोली ब्रजभाषा नहीं वरन् दिल्ली और मेरठ की जनपदीय बोली है, तब उस बोली का अन्य उपयुक्त नाम प्रचलित ना होने के कारण उसे 'खड़ी बोली' ही कहा जाने लगा। इस प्रकार खड़ी बोली का प्रस्तुत भाषाशास्त्रीय प्रयोग विकसित हुआ। प्राचेन कुरु जनपद से सम्बंध जोड़कर कुछ लोग अब इसे 'कौरवी बोली' भी कहने लगे हैं, किंतु जब तक पूर्णरूप से यह सिद्ध ना हो जाए कि इस बोली का विकास उस जनपद में प्रचलित अपभ्रंश से ही हुआ है तब तक इसे कौरवी कहना वैज्ञानिक दृष्टि से युक्तियुक्त नहीं।
🔹 खड़ी बोली बहुल क्षेत्र
खड़ी बोली निम्न लिखित स्थानों के ग्रामीण क्षेत्रों में बोली जाती है- मेरठ, बिजनौर, मुज़फ़्फ़रनगर, सहारनपुर, देहरादून के मैदानी भाग, अम्बाला, कलसिया और पटियाला के पूर्वी भाग, रामपुर और मुरादाबाद। बाँगरू, जाटकी या हरियाणवी एक प्रकार से पंजाबी और राजस्थानी मिश्रित खड़ी बोली ही हैं जो दिल्ली, करनाल, रोहतक, हिसार और पटियाला, नाभा, झींद के ग्रामीण क्षेत्रों में बोली जाती है। खड़ी बोली क्षेत्र के पूर्व में ब्रजभाषा, दक्षिण पूर्व में मेवाती, दक्षिण पश्चिम में पश्चिमी राजस्थानी, पश्चिम में पूर्वी पंजाबी और उत्तर में पहाड़ी बोलियों का क्षेत्र है। बोली के प्रधानत: दो रूप मिलते हैं-
• पूर्वी या पूर्वी खड़ी बोली
• पश्चिमी या पश्चिमी खड़ी बोली।
साहित्य के क्षेत्र में खड़ी बोली के आदि प्रयोग 'गोरखवाणी' तथा बाबा फ़रीद शररगंज की बानियों में मिलते हैं। मुसलमानों ने इस बोली को अपनाकर इसे अंत:प्रांतीय रूप दिया। निर्गुण संतों ने भी इसके प्रचार में सहयोग दिया। धीरे धीरे इस बोली में व्याकरण के क्षेत्र में तथा शब्द कोश में अन्य भाषाओं का मिश्रण होने लगा, जिससे हिंदी (आधुनिक अर्थ), उर्दू और हिंदुस्तानी का विकास हुआ। आज इस बोली के कुछ लोकगीत भी मिलते हैं, जो प्रकाशित भी हुए हैं।